अनुवाद उनके लिए रचनात्मक कर्म था

डा. प्रजापति प्रसाद साह आई आई टी, कानपुर में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे। पिछले सप्ताह वे हमारे बीच नहीं रहे। 21 जुलाई को ही उनकी तेहरवीं हुई। जब उनका स्वर्गवास हुआ तो उनकी पत्नी नलिनी जी अकेली थीं। बड़ा बेटा ब्राज़िल गया हुआ था, छोटा बेटा अमेरिका में है, बेटी फ्रांस गई हुई थी। नलिनी जी पेंटर हैं साथ साथ साहसी भी हैं। तीन साल से साह जी को तरह तरह की बीमारियाँ थीं पर उनके सामने वे मुस्कुराती रहती थीं। अब वे टूट गई हैं। साथी का इस उम्र में बिछुडना डार के बिखर जाने की तरह है। दो पक्षी भी डार बनाकर उड़ते हैं। अकेला क्या करे।

उनका मेरा लगभग तीस वर्ष से अधिक का साथ था। आई आई टी में रहते और अंग्रेज़ी के विद्वान होते हुए उनकी हिन्दी साहित्य में गहरी रुचि थी। वे अनुवाद कर्म को अपने आप में एक संपूर्ण रचनात्मक कर्म मानते थे। अपने देश में अनुवाद कर्म को महत्त्व ने मिलने को वे भाषाओं के बीच संपर्क न पाने को दुखद स्थिति समझते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र होने के नाते साहित्य में उनकी रुचि स्वाभाविक थी। मैंने इलाहाबाद में रहकर अनुभव किया था कि शायद ही कोई ऐसा नगर हो जहाँ के रोम रोम में साहित्य बसा हो। हालाँकि अब हो सकता है वह बात न रही हो। मैं यह मानता हूँ अगर मैं इलाहाबाद न गया होता तो शायद मेरी साहित्यिक यात्रा आरंभ न हुई होती। ख़ैर, डा. साह अंदर से पूरी तरह साहित्य को समर्पित थे। वे कविताएं लिखते थे। उनकी कविताएं क ख ग जैसी बौद्धिक पत्रीका में छपी थीं। उन्होंने बच्च्न जी की मधुशाला का अंग्रेज़ी में सशक्त अनुवाद किया था। संभवतः वे उनके अध्यापक भी रहे थे। यह दुखद है कि वह प्रकाशित नहीं हो सका। रूपा ने हामी भी भर ली थी पर उनका कहना था कि अमिताभ बच्चन की स्वीकृति प्राप्त कर लें। उन्होंने बच्चन को कई पत्र लिखे पर स्वीकृति या अस्वीकृति दोनों में से कुछ भी नहीं मिल पाई। यह चिंता की बात है ऐसे मामलों में भी सेलिब्रेटीज़ ऐसे विदंवानों के पत्रों का उत्तर नहीं देते। इस बात का उनको दुःख रहा। उनकी पत्नी नलिनी जी ने कहा भी कि हम छपवा देते हैं जो होगा देखा जाएगा। पर उन दिनों वे अस्वस्थ थे उन्होंने उचित नहीं समझा। उनके देहावसान से कुछ दिन पहले नलिनी जी ने व्यक्तिगत स्तर पर मित्रों में बटवाने के लिए (बेचने के लिए नहीं) लगभग 100 प्रतियाँ छपवाईं। नलिनी जी चाहती थीं कि उनके जीवन काल में वह छपकर आ जाए। हालाँकि एक दिन पहले प्रतियाँ आ भी गई थीं। पर कुरियर वाले ने सप्ताह भर बाद दीं। यह कैसा संयोग है।

साह साहब ने बताया था कि संभवतः कई साल पहले श्री अशोक वाजपेयी ने उनसे अज्ञेय जी पर लिखवाया था। पर या तो वह योजना समाप्त हो गई या फिर उपयोग नहीं हो पाया। जो भी हुआ हो पर उनको पता नहीं चल पाया क्या हुआ। कबीर पर भी काम कर रहे थे। साखी और दोहों का अंग्रेज़ी में अनुवाद कर रहे थे। लेकिन तीन साल की बीमारी ने उनका हाथ रोक दिया। हिन्दी को और अंग्रेज़ी के माध्यम से भारतीय भाषाओं को जोड़ने का उनका उत्साह और समर्पण अधूरा रह गया। उन्होंने इंडियन लिंग्विटिक्स खंड 65 में, ‘टुवर्डस कंपलीट ट्रान्सलेशन’ लेख लिखा था, जो अनुवाद के सिद्धांत का विवेचन है। जयंत महापात्र की कृति रिलेशनशिप,   संबंध, शीर्षक से साहित्यिक अकादेमी से भी प्रकाशित है। अज्ञेय की चुनिंदा कविताएं पेंग्विन से प्रकाशित हुई हैं। उमर ख़य्याम की रूबाइयाँ भी हिंदी में अनुदित और अपकाशित हैं ।

मैं उनके इस अहसान को कभी भूल नहीं पाऊँगा कि मेरे उपन्यास ढाई घर का द नाइटस मूव के नाम से साहित्य अकादेमी के लिए अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। सबसे बड़ी बात थी 904 पृष्ट के उपन्यास पहला गिरमिटिया का ‘द गिरमिटिया सागा’ नाम से अनुवाद किया, जो नियोगी बुक्स ने छापा। इतने वृहद उपन्यास का  सशक्त तरीके से उपन्यास करना आसान काम नहीं था। रमेश चंद्र साह की रचनाओं का भी उन्होंने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था।

जब 2001 में द गिरमिटिया उपन्यास का विमोचन बिरला हाउस में हुआ था। श्रीमती तारा भट्टाचार्य मुख्य अतिथि थीं। प्रो, इन्द्रनाथ चौधरी और श्री निर्मलकांत भट्टाचार्य  ने पर्चे प्रस्तुत किए थे। तब डा. साह ने अनुवाद कर्म को दूसरे नंबर पर रखने के बारे में कहा था हर भारतीय भाषा के लेखक अपनी रचनाओं को हिन्दी, अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं में छपवाना चाहते हैं पर अनुवादक को अपने समकक्ष नहीं मानते, इन मान्यताओं में परिवर्तन करना होगा। अनुवादक भी लेखक की भांति रचनात्मकता से गहराई से जुड़ा हुआ होता है। बिना अनुवाद के कोई रचना या कृति अपना स्थान विश्व साहित्य में नहीं बना पाई। प्रो. साह का चला जाना साहित्य, और ख़ासतौर से हिन्दी साहित्य की कभी न पूरी होने वालि क्षति है।

25 जुलाई, 15 के जनसत्ता में उपरोक्त लेख का संपादित अंश भाषा सेतु शीर्षक से छपा था।